केवल पांडे आधी नदी पार कर चुके थे। घाट के ऊपर के पाट में अब, उतरते चातुर्मासा में सिर्फ घुटनों तक पानी है, हालाँकि फिर भी अच्छा खासा वेग है धारा में। एकाएक ही मन में आया कि संध्याकाल के सूर्य देवता को नमस्कार करें। जलांजलि छोड़ने के लिए पूर्वाभिमुख होते ही, सूर्य और आँखों के मध्य कुछ धूमकेतु-सा विद्यमान दिखाई दे गया। ध्यान देने पर देखा, उत्तर की ओर जो शूद्रों का श्मशान है, बौंड़सी, वहीं से धुआँ ऊपर उठ रहा है और, हवा के प्रवाह की दिशा में धनुषाकार झुककर, छिदिर-मंदिर बादलों का सा गुच्छा बनाता, सूर्य के समानांतर धूमकेतु की तरह लटक गया है!
ओम् विष्णुविष्णुविष्णु...
केवल पांडे के घुटने पानी के अंदर ही आपस में टकरा गए और अंजलि में भरा जल ढीली पड़ी उँगलियों में से रीत कर, नदी में ही विलीन हो गया। उनके अर्द्धचेतन में कही से एक आशंका तेजी से उठी - 'बेचारा किसनराम ही तो नहीं मर गया?'
किसनराम की स्मृति में होते ही अपने घुटने नदी के जलप्रवाह में प्रकंपित होते-से मालूम पड़े। पुरोहित पं. केवलानंद पांडे को लगा कि उनके और सूर्य के बीच में धूमकेतु नहीं, बल्कि उनके हलिया किसनराम की आत्मा प्रेत की तरह लटकी हुई है। कुछ क्षण सुँयाल नदी के जल से अधिक अपने ही में डूबे रह गए। किसनराम के मरे होने का अनुमान जाने कैसे अपना पूरा वितान गढ़ता गया। गले में झूलता यज्ञोपवीत, माथे में चंदन-तिलक और रक्त में घुला-सा जातीय संस्कार। बार-बार अनुभव हो रहा था कि ऊपर श्मशान में अछूत के शव की अस्थि-मज्जा को बहाकर लाती सुँयाल नदी का निषिद्ध जल उनके पाँवों से टकरा रहा है। हो सकता है, ऊपर से अधजला मुर्दा ही नीचे को बहा दिया जाए और वहीं पाँवों से टकरा जाए? ...नदी के तेज प्रवाह में लकड़ी के स्लीपर की तरह घूमते और बहते जाते शव उन्होंने कई बार देखे हैं। विशेषकर बनारस में संस्कृत पढ़ने के दिनों में।
हालाँकि इधर से सुँयाल पार करते ही, गाँव से लगा अरण्य, प्रारंभ हो जाता है। अब सूर्यास्त के आस-पास के समय, ऊँचे-ऊँचे चीड़-वृक्षों की छायाएँ पूर्व की ओर प्रतिच्छायित हो रही थीं। दूर ढलानों पर गाय-बकरियों के झुंड चरते दिखाई पड़ रहे थे। कुछ देर योंही दूर तक देखते, आखिर नदी पार करके अपने गाँव की ओर बढ़ने की जगह, केवल पांडे तेजी से इस पार ही लौट आए।